बुलबुल आख्यान और प्रकृति-स्वरूपा
विदुषी अनघा राग को शुभकामनाएं
उसने कहा -1
मैंने कहा -
पिंजरे का यह परिंदा कितना सुंदर है
इसे घर ले चलते हैं
उसने कहा-
अच्छा होगा अगर
पिंजरा खरीदकर
यहीं के यहीं पंछी को उड़ा दें
मैंने कहा-
फिर एक कुत्ता पाल लेते हैं
उसने कहा-
रहने दो,
गले में ज़ंजीर होना
किसी के लिए भी अच्छा नहीं
मैंने कहा-
तो चलो कछुआ या मछलियां
पाल लेते हैं
उसने कहा-
अभी समुंदर,नदी,तालाब
सूखे नहीं हैं,
तब तक उन्हें वहीं रहने दो
मैंने कहा-
तुम हर बात को काटती क्यों हो ?
उसने कहा-
ये दुनिया जैसी थी
उसे वैसी ही रहने दो !
तुम्हारे बस का नहीं
नई दुनिया बसाना.
हां ! यह ज़रूर है कि
गुलामी की दुनिया में रहते हुए
मुझे ज़ंजीरें काटना आ गया है |
उसने कहा -2
विदुषी अनघा राग को शुभकामनाएं
सुनो
! मेरा विश्वास करो,वो
बुलबुल मुझसे बात करती है ... हाँ ! रोज, हाँ ! वही बुलबुल जो
रोज सुबह हमारे दालान में लगे झूमर पर बैठती है । उसने वहां पर अपना घोंसला बनाया
हुआ है । पिछले साल भी ये बुलबुल मुझसे बात करती थी, शायद ये वही बुलबुल
नहीं भी हो, मगर
हां ! बुलबुल मुझसे बात करती है, मेरा यकीन करो !
इतनी
लंबी पंक्तियों के कथन के बाद उसे लग रहा था कि मैं यकीन कर लूंगा उसके इस इसरार
पर कि एक बुलबुल एक औरत से बातें भी करती होगी । मेरे पास कोई चारा न था । लेकिन
हां ! मैं यकीन तो कर रहा था उसकी बात पर, मगर जाहिर करने की तमाम
भंगिमाएं व्यर्थ हुई जाती थीं । और फलतः उसके बुलबुल आख्यान जारी थे । उसने आगे
कहा- देखो...! मेरी तरफ देखो ! इतने दूर...दस उंगल दूर से हम आपस में बातें करते
हैं ! पहले मक्का, फिर
चने,फिर
आलू के पराठे के टुकड़े दिए उसे कुछ भी नहीं जंचा, फिर मैं दौड़कर घर की
बनी सेव लाई तो बुलबुल ने पट् से कुछ सेव चोंच में दबाई और जा बैठी झूमर पर । और
अपने नन्हों की चोंच में डाल आई । फिर आई...उड़ी और चोंच में डाल आई । मुझे बुलबुल
ने बता दिया कि उसे सेव अच्छी लगती है । शायद घर की बनी ही ।
हमारे
दालान में एक नई दुनिया बस गई थी और मुझे इसका पता भी न चला । कैसे झूमर भी कई बार
उम्मीदों के आशियाने बन जाते हैं । एक अलग दुनिया का प्राणी आपकी दुनिया में एक
अजनबी जगह पर आषियाना बना लेता है और जाने कैसे आपसे संवाद स्थापित कर लेता है ।
और आपको इसका पता तब चलता है जब बातचीत में गृहस्वामिनी आपको टोकती है - सुनो !
तुम्हें पता है , वो
बुलबुल मुझसे बात करती है, इतने
नजदीक से...हर सुबह ।
ऐसी
सुबह तो रोज होनी चाहिए जिसमें बुलबुल बतियाएं,रंग-बिरंगे फूल,पेड़-पौधे हमारे साथ
नाचें और हम तितलियों की माफिक उड़ें, बागीचा-बागीचा ! आमीन !
DISCLAIMER/
BIRTHDAY SPECIAL VIDUSHI ANAGHAJI ;
Since long time my readers and my close friends have been
asking me that who actually inspires me or gives inputs or is idol behind my poems
especially on nature’s chain ,plants,water,environment etc.,frankly speaking about
it today,I must say, it often happens at the moment
when you are at deepened thoughts or in process of relating the contents of
conversations happening around.Now here today I take this opportunity without
any hesitation (as there is no copyright issue is in between ! ) and would like to admit that
many a times I decode words of my better half Vidushi Anaghaji as she is very
much close to nature compare to me, I do it to construct my poems by putting
them for broder issues and wider spectrum,.she is truely an original person for
me,without her I could have never arranged systematically the message of Almighty
Nature for mankind through my poems.On connect to Nature issues,water
conservation,climate change etc. Credit goes to her only.She was the one who kept
me very positive always and alive during the times of immense pressure of
various forces creating event horizon before my every creation.In our garden at our residence "SUMAN SMRITI" natural essence of mother soil flows around us and nature keeps us bonded with
true spirit, Since last 28 years we enjoy the days just like
सुमन
और सुगंध की तरह.On her birth anniversary the special gift of this
disclosure along with the remaining poems of उसने कहा/ USNE KAHAA series including for
my all those friends too who have been continuously encouraging
this great
journey up till now.Let's hope that the initiatives taken by New Wave Foundation under RUPANTARAN SHIVIRS for the revival of environment and nature will soon give outcomes.All the best.
मोगरा फुलला
एक दिन तो ऐसा आ ही जाता है
आप कहते हैं- मोगरा !
और आपके गिर्द
समूचा बागीचा आ जाता है
तमाम खिले हुए
मोगरों की खुशबुओं के साथ
आपको अब
किसी की भी प्रतीक्षा नहीं है
न ही कोई आपकी राह देख रहा है
यह एकाकार होना है
स्पष्टत:
नहीं समझे !
देखो !
कहीं किसी ने कहा है - मोगरा !
और तुम !
महक उट्ठे हो I
" EVERY DAY IS OUR BIRTHDAY,CONNECT with NATURE and FEEL
IT ! "
उसने कहा सीरीज
की पांच कविताएं:
उसने कहा -1
मैंने कहा -
पिंजरे का यह परिंदा कितना सुंदर है
इसे घर ले चलते हैं
उसने कहा-
अच्छा होगा अगर
पिंजरा खरीदकर
यहीं के यहीं पंछी को उड़ा दें
मैंने कहा-
फिर एक कुत्ता पाल लेते हैं
उसने कहा-
रहने दो,
गले में ज़ंजीर होना
किसी के लिए भी अच्छा नहीं
मैंने कहा-
तो चलो कछुआ या मछलियां
पाल लेते हैं
उसने कहा-
अभी समुंदर,नदी,तालाब
सूखे नहीं हैं,
तब तक उन्हें वहीं रहने दो
मैंने कहा-
तुम हर बात को काटती क्यों हो ?
उसने कहा-
ये दुनिया जैसी थी
उसे वैसी ही रहने दो !
तुम्हारे बस का नहीं
नई दुनिया बसाना.
हां ! यह ज़रूर है कि
गुलामी की दुनिया में रहते हुए
मुझे ज़ंजीरें काटना आ गया है |
उसने कहा -2
मैंने कहा-
मैं सब जानता हूं
सब समझता हूं
मुझे सब पता है
उसने कहा-
मेरे ख़्याल में
तुम कुछ नहीं जानते
कुछ नहीं समझते
तुम्हें कुछ नहीं पता
मैंने कहा-
ठीक है
तो कुछ भी पूछो
उसने कहा-
तो बताओ
क्या-क्या दीखता है आसपास ?
मैंने कहा-
सब कुछ
सब कुछ
उसने कहा-
तुम्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता
उसने फिर कहा-
अच्छा बताओ
तुम्हें क्या-क्या सुनाई देता है ?
मैंने कहा-
सब कुछ
हां ! सब कुछ
वह हंसी और कहा-
तुम्हें तो कुछ सुनाई भी नहीं देता
मैंने कहा-
तुम हर बात को काटती क्यों हो
तुम्हें ऐसा क्या
दिखाई और सुनाई देता है
जो मेरे बस का नहीं
उसने कहा-
हमारे देखने-सुनने में
महसूस करना अक्सर छूट जाता है
तुम्हारी बातों में
ये बगीचा,
फूल-पत्ती,
तितलियां,झींगुर,चिड़िया,
पानी की बूंद,मिट्टी की महक,
आग की बात,चंदा-सूरज,तारे,
सितार का स्पर्श,
पीड़ा की मंद्र ध्वनियां,
इंद्रधनुष का ज़िक्र
वगैरह- वगैरह तो कहीं नहीं आते
तो मैं कैसे मान लूं
तुम्हें कुछ भी आता है
मैंने कहा-
अच्छा बाबा !
माना मुझे कुछ नहीं पता
कुछ नहीं आता
अब छोड़ो भी
उसने कहा-
बुद्धू महाशय !
अब घर चलो
देर हो रही है |
उसने कहा -3
मैंने कहा-
आजकल हर चीज़ की कीमत है
सब बिकाऊ है
उसने कहा-
ऐसा बिके हुए लोग बोलते हैं
तुम्हें यह कहते हुए
ध्यान रखना चाहिए
मैंने कहा-
सब कुछ तो बिक रहा है
मिट्टी,खाद,पानी,
दिल,गुर्दा,जिगर वगैरह-वगैरह
उसने कहा-
सब बिकाऊ नहीं हैं
मैं भी नहीं
हां !
तुम्हारी बात और है
मगर मैंने !
मैंने अपनी कीमत कभी नहीं लगाई
मैंने कहा-
तुम हर बात को काटती क्यों हो
उसने कहा-
मांएं जो जननी हैं
अब भी बची हैं
अनमोल क्या होता है
वे ही जानती हैं
तुम ख़रीददार हो,बाज़ार हो
सो यह भाषा बोल रहे हो
अच्छा है कि
मां ने तुम्हें नहीं सुना
वरना अफसोस होता उसे
कि मैंने तुम जैसे को चुना |
उसने कहा -4
उसने कहा
क्या तुमने नोटों को उड़ते देखा है ?
मैंने कहा- नहीं
तो कम से कम
सपने में ही देख लिया करो
उसने कहा
उसने कहा
आज तुम्हारे सिर के ऊपर
कुछ रंग बिरंगी तितलियां
कुछ देर को ठहरीं थीं
क्या तुमने तितलियों को देखा ?
मैंने कहा- नहीं
तो कम से कम
सपने में ही देख लिया करो
उसने कहा
उसने कहा
तुम्हारे विवेक ने आज तुम्हें
सड़क पर बाल-बाल बचाया
क्या तुम्हें भाग्य की जगह
बुद्धि पर यकीन आया ?
मैंने कहा- नहीं
तो कम से कम
सपने में ही
आईने में झांककर
खुद की लकीरें पढ़ लिया करो
उसने कहा
मैंने कहा
तुम हर बात को काटती क्यों हों
उसने कहा
तुम बाहर की दुनिया में-से
अपनी पहचान ढूंढ रहे हो
भटक रहे हो
जिसकी कोई ज़रूरत ही नहीं
खुद को खुद का खुद से
सर्टिफिकेट दो और
विजयी भव |
उसने कहा -5
उसने कहा
यह लो !
यह नायाब नीली गेंद
ख़ास तुम्हारे लिए
मेरे बच्चे
जाओ खेलो
ख़ूब खेलो
गेंद के भीतर मैंने
पानी-हवा और
कई छोटे-बड़े जीवों का
संगीत भर दिया है
जो तुम्हारे जीवन को
लय और ताल देगा
यूं तुम सबके साथ
हमेशा खुश रहोगे
खेलोगे-कूदोगे-नाचोगे
इसीलिए है यह नायाब
ऐसी कोई एक नीली गेंद
स्वप्न में नहीं मिली थी
यह मेरे हाथ में थी
हम एक दूजे के लिए बने थे
मैं खेलता
खेलते-खेलते
इसके भीतर चला जाता
संगीत में रम जाता
इतना कि सो जाता
एक दिन हुआ यह कि
गेंद का नीलापन
कम होता दिखा
भीतर की हवा कम और गर्म
बहुत गर्म लगी
पानी मैला और बेचैन दिखा
संगीत की जगह
कर्कश आवाज़ों ने ले ली
शोर तांडव करता दिखा
गेंद किसी काम की न रही
मुझे उसकी याद आई
मैंने उससे कहा
मेरा खेल ख़त्म हुआ
ये लो तुम्हारी गेंद
जो अब नीली भी नहीं
और नहीं ठीक वैसी की वैसी
वह मुस्कराया
उसने कहा-कोई बात नहीं !
अब तुम बड़े हो गए हो
गेंद के नीलेपन तक ही
तुम्हारे जीवन का बचपन था
स्वर्ग जैसा
मगर अब
तुम्हारे निर्दोष और मासूम बच्चों को देने के लिए
मेरे पास कुछ भी नहीं
कोई गेंद भी नहीं !
कविता व आलेख : राग तेलंग
चित्र साभार गूगल व स्वनिर्मित एक इमेज
मैं सब जानता हूं
सब समझता हूं
मुझे सब पता है
उसने कहा-
मेरे ख़्याल में
तुम कुछ नहीं जानते
कुछ नहीं समझते
तुम्हें कुछ नहीं पता
मैंने कहा-
ठीक है
तो कुछ भी पूछो
उसने कहा-
तो बताओ
क्या-क्या दीखता है आसपास ?
मैंने कहा-
सब कुछ
सब कुछ
उसने कहा-
तुम्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता
उसने फिर कहा-
अच्छा बताओ
तुम्हें क्या-क्या सुनाई देता है ?
मैंने कहा-
सब कुछ
हां ! सब कुछ
वह हंसी और कहा-
तुम्हें तो कुछ सुनाई भी नहीं देता
मैंने कहा-
तुम हर बात को काटती क्यों हो
तुम्हें ऐसा क्या
दिखाई और सुनाई देता है
जो मेरे बस का नहीं
उसने कहा-
हमारे देखने-सुनने में
महसूस करना अक्सर छूट जाता है
तुम्हारी बातों में
ये बगीचा,
फूल-पत्ती,
तितलियां,झींगुर,चिड़िया,
पानी की बूंद,मिट्टी की महक,
आग की बात,चंदा-सूरज,तारे,
सितार का स्पर्श,
पीड़ा की मंद्र ध्वनियां,
इंद्रधनुष का ज़िक्र
वगैरह- वगैरह तो कहीं नहीं आते
तो मैं कैसे मान लूं
तुम्हें कुछ भी आता है
मैंने कहा-
अच्छा बाबा !
माना मुझे कुछ नहीं पता
कुछ नहीं आता
अब छोड़ो भी
उसने कहा-
बुद्धू महाशय !
अब घर चलो
देर हो रही है |
उसने कहा -3
मैंने कहा-
आजकल हर चीज़ की कीमत है
सब बिकाऊ है
उसने कहा-
ऐसा बिके हुए लोग बोलते हैं
तुम्हें यह कहते हुए
ध्यान रखना चाहिए
मैंने कहा-
सब कुछ तो बिक रहा है
मिट्टी,खाद,पानी,
दिल,गुर्दा,जिगर वगैरह-वगैरह
उसने कहा-
सब बिकाऊ नहीं हैं
मैं भी नहीं
हां !
तुम्हारी बात और है
मगर मैंने !
मैंने अपनी कीमत कभी नहीं लगाई
मैंने कहा-
तुम हर बात को काटती क्यों हो
उसने कहा-
मांएं जो जननी हैं
अब भी बची हैं
अनमोल क्या होता है
वे ही जानती हैं
तुम ख़रीददार हो,बाज़ार हो
सो यह भाषा बोल रहे हो
अच्छा है कि
मां ने तुम्हें नहीं सुना
वरना अफसोस होता उसे
कि मैंने तुम जैसे को चुना |
उसने कहा -4
उसने कहा
क्या तुमने नोटों को उड़ते देखा है ?
मैंने कहा- नहीं
तो कम से कम
सपने में ही देख लिया करो
उसने कहा
उसने कहा
आज तुम्हारे सिर के ऊपर
कुछ रंग बिरंगी तितलियां
कुछ देर को ठहरीं थीं
क्या तुमने तितलियों को देखा ?
मैंने कहा- नहीं
तो कम से कम
सपने में ही देख लिया करो
उसने कहा
उसने कहा
तुम्हारे विवेक ने आज तुम्हें
सड़क पर बाल-बाल बचाया
क्या तुम्हें भाग्य की जगह
बुद्धि पर यकीन आया ?
मैंने कहा- नहीं
तो कम से कम
सपने में ही
आईने में झांककर
खुद की लकीरें पढ़ लिया करो
उसने कहा
मैंने कहा
तुम हर बात को काटती क्यों हों
उसने कहा
तुम बाहर की दुनिया में-से
अपनी पहचान ढूंढ रहे हो
भटक रहे हो
जिसकी कोई ज़रूरत ही नहीं
खुद को खुद का खुद से
सर्टिफिकेट दो और
विजयी भव |
उसने कहा -5
उसने कहा
यह लो !
यह नायाब नीली गेंद
ख़ास तुम्हारे लिए
मेरे बच्चे
जाओ खेलो
ख़ूब खेलो
गेंद के भीतर मैंने
पानी-हवा और
कई छोटे-बड़े जीवों का
संगीत भर दिया है
जो तुम्हारे जीवन को
लय और ताल देगा
यूं तुम सबके साथ
हमेशा खुश रहोगे
खेलोगे-कूदोगे-नाचोगे
इसीलिए है यह नायाब
ऐसी कोई एक नीली गेंद
स्वप्न में नहीं मिली थी
यह मेरे हाथ में थी
हम एक दूजे के लिए बने थे
मैं खेलता
खेलते-खेलते
इसके भीतर चला जाता
संगीत में रम जाता
इतना कि सो जाता
एक दिन हुआ यह कि
गेंद का नीलापन
कम होता दिखा
भीतर की हवा कम और गर्म
बहुत गर्म लगी
पानी मैला और बेचैन दिखा
संगीत की जगह
कर्कश आवाज़ों ने ले ली
शोर तांडव करता दिखा
गेंद किसी काम की न रही
मुझे उसकी याद आई
मैंने उससे कहा
मेरा खेल ख़त्म हुआ
ये लो तुम्हारी गेंद
जो अब नीली भी नहीं
और नहीं ठीक वैसी की वैसी
वह मुस्कराया
उसने कहा-कोई बात नहीं !
अब तुम बड़े हो गए हो
गेंद के नीलेपन तक ही
तुम्हारे जीवन का बचपन था
स्वर्ग जैसा
मगर अब
तुम्हारे निर्दोष और मासूम बच्चों को देने के लिए
मेरे पास कुछ भी नहीं
कोई गेंद भी नहीं !
कविता व आलेख : राग तेलंग
चित्र साभार गूगल व स्वनिर्मित एक इमेज




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