As I Know Our Heritage (Series);
AADI SHANKARACHARYA; महान दार्शनिक;आदि शंकराचार्य
Now today under the Series
of Posts Ancient Philosophers;
AADI SHANKARACHARYA;
On
Vaishakh Shukla Panchami i.e. 9th May,India is celebrating Shankaracharya
Jayanti,Yes ! THE AADI Guru SHANKARACHARYA JAYANTI.The title derives from Adi
Shankara, an 8th-century AD Philosopher of Quantum World (In my words). He is honored
as Jagadguru, a title that was used earlier only to Krishna.Also this is a
commonly used title of heads of monasteries called mathasin the Advaita Vedanta
tradition. Shankaracharya is also seen as an avatar of Lord Shiva (Shankara). Adi
Shankaracharya wished to grace the Indian subcontinent by establishing five
major mathas in the four corners of the peninsula ; north (Jyothirmath), south
(Kanchi), east (Puri), west (Dwaraka) ; to propagate the philosophy of Advaita,Vedanta
and to promulgate the concept of Sanatana dharma, thus establishing dharma or
righteousness, as the way of life of people. His primary four disciples and
himself took charges of each math and thus established a strong Guru-Shishya
parampara (a lineage of masters-disciples) in every math, that continues to
guide people to this day.Now a days a great debate is in air on Quantum theory
or Theory of Everything or Unified Theory or M Theory.Recent developments of
obtaining an integrated image of Black hole is also a great achievement and in
deep level, in my opinion all these events falls in the purview of ancient
Indian philosophy also.
Now further details about this great philosopher of India
is being produced in Hindi;
महान दार्शनिक; आदि शंकराचार्य
शंकराचार्य
का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। सारे भारत देश में
शंकराचार्य को सम्मान सहित आदि गुरु के नाम से जाना जाता है । उन्होंने ही इस
ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और
जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में
है।
शंकराचार्य
का दर्शन : शंकराचार्य के दर्शन को
अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। इसके अनुसार वेद और वेदों के अंतिम भाग
अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन
निकलता है।
आदि शंकराचार्य के अद्वैत मत के अनुसार (संक्षेप में ) ज्ञान के दो प्रकार के होते
हैं।
एक पराविद्या और दूसरा
अपराविद्या । पहला सगुण ब्रह्म (ईश्वर) होता है लेकिन दूसरा निर्गुण ब्रह्म होता
है। शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के सार को इस प्रकार भी समझा जा सकता है ; ब्रह्म
और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमें जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है और जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने
में है। दार्शनिक विद्वानों ने आदि शंकराचार्य को 'सभी समय का सबसे बड़े
तत्वमीमांसा का विद्वान' भी कहा है I
ऐतिहासिक
और सांस्कृतिक प्रभाव ; आचार्य शंकर की अनेक
रचनाएँ अप्रतिम और भारतीय वैदिक दर्शन की अमूल्य निधि हैं I उनकी पंचदशी,भाष्य,लघु तत्त्वज्ञान विषयक
रचनाओं से दर्शन के एक दिव्य आयाम का पता चलता है I इन्टरनेट पर उनके जीवन
चरित को जानना दिलचस्प होगा , हाँ ! इनके संन्यास
ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है, कैसे एक दिन नदी किनारे
एक मगरमच्छ ने बालक शंकर का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते
शंकराचार्यजीने अपने माँ से कहा " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो
हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी ", इससे भयभीत होकर माता
ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात, जैसे ही माता ने आज्ञा
दी वैसे ही तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। इसी तरह उनके बारे में पढ़ते हुए 'कालः क्रीड़ा
गच्छत्यायुʼ सिद्धान्त व " 'मृषा न होइ देव ऋषि
वाणी' सिद्धान्त के घटनाओं की पृष्ठभूमि
ज़रूर पढियेगा I
उन्होनें
तत्कालीन भारत में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों को दूर कर अद्वैत वेदान्त की ज्योति
से देश को आलोकित किया। सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं
में चार मठों की स्थापना की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस
पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में श्रन्गेरी, पूर्व में गोवर्धन तथा
पश्चिम में शारदा मठ नाम से देश में चार धामों की स्थापना की।
अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान
के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ ये सब अगर किसी एक
महासागर में अवस्थित कहे जाएँ तो वे हैं आचार्य शंकर I
भारतीय
संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में आदि शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है।
शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे, इनकी प्रतिभा से इनके
गुरु भी बेहद चकित थे। । ।
उन्होंने
अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर
सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने
के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर
यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं
जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और
शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के
भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, ‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों
की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से
शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त
किया। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भरत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना
करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक
एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया।
गुरु
और शिष्य ;
शंकराचार्य
के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते
थे। शंकराचार्य के चार शिष्य थे : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)।
माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।
उनका
जीवन क्रम और उनकी अपार मेधा की यात्रा सचमुच चमत्कृत करती है I आइये देखते है ;
1. प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने
मात्र २ वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ
कंठस्थ कर लिए थे I
2. जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का
देहांत हो गया और इसी तीन वर्ष की अवस्था में ये मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर
चुके थे I
3. छह वर्ष की अवस्था में
ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में श्रीगोविन्दपाद के
शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो चुके थे I इसी वय में इन्होने वाराणसी से होते हुए
बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा की I
5. भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों
को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना की I
6. चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत
की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है।
7. सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत
वेदान्त का प्रचार करना I
8. ३२ वर्ष की अल्प आयु में सन् 539 ईसा पूर्व में केदारनाथ के समीप अपना प्रयोजन
पूरा होने बाद अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया।
ऐसे
अनेक कार्य हैं जो इनके महत्व को और बढ़ा देते हैं ।
उन्होंने
समस्त मानव जाति को जीवन मुक्ति का एक सूत्र दिया-
दुर्जन:
सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो
मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
अर्थात
दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांतिरूप बनें।
शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें।
भारतीय
दर्शन परंपरा के आदि गुरुवर को आज याद करते हुए कहना होगा कि समकालीन विज्ञान
चिंतन परम्परा में भारत का योगदान किसी भी रूप में कम नहीं है,यह कहीं धर्म ग्रंथों
में दर्ज है तो ऋषि-मुनियों के जीवन की गाथाओं-कथाक्रमों में भी I
आलेख;राग तेलंग
सन्दर्भ
सामग्री साभार : इन्टरनेट,विकिपीडिया,वेब दुनिया
चित्र; गूगल से साभार
शंकराचार्य
का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। सारे भारत देश में
शंकराचार्य को सम्मान सहित आदि गुरु के नाम से जाना जाता है । उन्होंने ही इस
ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और
जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में
है।
शंकराचार्य
का दर्शन : शंकराचार्य के दर्शन को
अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। इसके अनुसार वेद और वेदों के अंतिम भाग
अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन
निकलता है।
आदि शंकराचार्य के अद्वैत मत के अनुसार (संक्षेप में ) ज्ञान के दो प्रकार के होते
हैं।
एक पराविद्या और दूसरा
अपराविद्या । पहला सगुण ब्रह्म (ईश्वर) होता है लेकिन दूसरा निर्गुण ब्रह्म होता
है। शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के सार को इस प्रकार भी समझा जा सकता है ; ब्रह्म
और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमें जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है और जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने
में है। दार्शनिक विद्वानों ने आदि शंकराचार्य को 'सभी समय का सबसे बड़े
तत्वमीमांसा का विद्वान' भी कहा है I
ऐतिहासिक
और सांस्कृतिक प्रभाव ; आचार्य शंकर की अनेक
रचनाएँ अप्रतिम और भारतीय वैदिक दर्शन की अमूल्य निधि हैं I उनकी पंचदशी,भाष्य,लघु तत्त्वज्ञान विषयक
रचनाओं से दर्शन के एक दिव्य आयाम का पता चलता है I इन्टरनेट पर उनके जीवन
चरित को जानना दिलचस्प होगा , हाँ ! इनके संन्यास
ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है, कैसे एक दिन नदी किनारे
एक मगरमच्छ ने बालक शंकर का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते
शंकराचार्यजीने अपने माँ से कहा " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो
हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी ", इससे भयभीत होकर माता
ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात, जैसे ही माता ने आज्ञा
दी वैसे ही तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। इसी तरह उनके बारे में पढ़ते हुए 'कालः क्रीड़ा
गच्छत्यायुʼ सिद्धान्त व " 'मृषा न होइ देव ऋषि
वाणी' सिद्धान्त के घटनाओं की पृष्ठभूमि
ज़रूर पढियेगा I
उन्होनें
तत्कालीन भारत में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों को दूर कर अद्वैत वेदान्त की ज्योति
से देश को आलोकित किया। सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं
में चार मठों की स्थापना की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस
पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में श्रन्गेरी, पूर्व में गोवर्धन तथा
पश्चिम में शारदा मठ नाम से देश में चार धामों की स्थापना की।
अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान
के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ ये सब अगर किसी एक
महासागर में अवस्थित कहे जाएँ तो वे हैं आचार्य शंकर I
भारतीय
संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में आदि शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है।
शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे, इनकी प्रतिभा से इनके
गुरु भी बेहद चकित थे। । ।
उन्होंने
अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर
सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने
के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर
यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं
जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और
शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के
भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, ‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों
की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से
शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त
किया। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भरत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना
करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक
एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया।
गुरु
और शिष्य ;
शंकराचार्य
के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते
थे। शंकराचार्य के चार शिष्य थे : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)।
माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।
उनका
जीवन क्रम और उनकी अपार मेधा की यात्रा सचमुच चमत्कृत करती है I आइये देखते है ;
1. प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने
मात्र २ वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ
कंठस्थ कर लिए थे I
2. जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का
देहांत हो गया और इसी तीन वर्ष की अवस्था में ये मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर
चुके थे I
3. छह वर्ष की अवस्था में
ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में श्रीगोविन्दपाद के
शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो चुके थे I इसी वय में इन्होने वाराणसी से होते हुए
बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा की I
5. भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों
को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना की I
6. चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत
की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है।
7. सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत
वेदान्त का प्रचार करना I
8. ३२ वर्ष की अल्प आयु में सन् 539 ईसा पूर्व में केदारनाथ के समीप अपना प्रयोजन
पूरा होने बाद अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया।
ऐसे
अनेक कार्य हैं जो इनके महत्व को और बढ़ा देते हैं ।
उन्होंने
समस्त मानव जाति को जीवन मुक्ति का एक सूत्र दिया-
दुर्जन:
सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो
मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
अर्थात
दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांतिरूप बनें।
शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें।
भारतीय
दर्शन परंपरा के आदि गुरुवर को आज याद करते हुए कहना होगा कि समकालीन विज्ञान
चिंतन परम्परा में भारत का योगदान किसी भी रूप में कम नहीं है,यह कहीं धर्म ग्रंथों
में दर्ज है तो ऋषि-मुनियों के जीवन की गाथाओं-कथाक्रमों में भी I
आलेख;राग तेलंग
सन्दर्भ
सामग्री साभार : इन्टरनेट,विकिपीडिया,वेब दुनिया
चित्र; गूगल से साभार

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